मेरा ईमान महिलाओं का " सम्मान "
मेरा
ईमान महिलाओं
का " सम्मान "
महिला
ही
रहने
दो
मुझे
देवी
न
बनाओ ।
स्त्री
को
स्त्री
ही
रहने
दो
ईश्वर
न
बनाओ ॥
देवी
बनके
मुझे
न
शामिल
करो
महानों
में ।
मैं
भी
हूँ
बस
एक
शक्श
आम
मनुष्यों
में
॥
मुझसे
भी
हो
सकती
है
गलती
कभी
कभी
।
क्योंकि
मैं
भी
हूँ
हाड़
मांस
की
ही
बस
पुतली ॥
मेरी
भी
चाह
मिले
मुझे
बस
उतनी
ही
जगह
।
जितनी
मिलती
है
पुरुषों
को
बिना किसी
वजह
॥
क्या
इस
छोटी
सी
बात
को
समझने
में
है
इतनी
जटिलता?
या
मिल
ही
नहीं
सकती
हमारी
बातों
को
कभी
भी
महत्ता?
भगवान
बनाने
के
पीछे
रचा
गया
है
एक
ख़ास
षड़यंत्र ।
इसमें
छुपा
है
समाज
का
हमे
आंकने-मापने
का
मंत्र
॥
क्या
देवी बनने की कीमत हम से ही लिया जायेगा?
क्या
यूहीं साजिश कर हमारे
ही
परों
को
काटा
जायेगा?
देवी
बनाके
डाल
दिया
हम
पर
सम्मान
का
बोझा ।
लाज
शर्म
में
सिमटी, सवाल
उभरा
बस
एक
मेरा,
अगर
पुत्र
है
परिवार
का
धन
फिर
इज़्ज़त
की
बोरी
हम
पर
क्यों?
और
अगर
देवी
बना
ही
दिया
फिर
अत्याचार
का छुरा
हम
पर
क्यों?
नन्ही
जानों
को
मिलती बेवजह
है
सजा
क्यों?
हम
पर
ही रहती
समाज
की
बुरी
नज़र
क्यों?
कसूर
नजरिये
का
फिर
क्यों
निर्भया
को
मिला
कब्र?
हम
पर
निर्धारित
दायरे
ख़त्म करो, अब
हुआ
बहुत
सब्र
॥
दुःख
है, वेदना
है, कष्ट
है, पीड़ा
है, व्यथा
है
।
बात
ज़रा
बस-
समाज
में
बराबरी
की
चाह
है
॥
‘सम्मान’
के
बराबर
के
अधिकारी पुरुष
भी
है
।
इसमें
भी
भेद-भाव
करना
क्या
उचित
है
?
महिला
ही
रहने
दो
मुझे
देवी
न
बनाओ ।
स्त्री
को
स्त्री
ही
रहने
दो
ईश्वर
न
बनाओ ॥
A better one.
ReplyDeleteGradually being refined your writings.Go ahead.